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बिहार के वैज्ञानिकों ने विकसित की आलू की नई किस्म

बिहार के वैज्ञानिकों ने विकसित की आलू की नई किस्म

बिहार के लखीसराय में कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों ने आलू की एक नई किस्म विकसित की है। आलू की इस किस्म को "पिंक पोटैटो" नाम दिया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आलू की इस किस्म में अन्य किस्मों की अपेक्षा रोग प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा है। साथ ही आलू की इस किस्म में बरसात के साथ शीतलहर का भी कोई खास असर नहीं पड़ेगा। फिलहाल इसकी खेती शुरू कर दी गई है। वैज्ञानिकों को इस किस्म में अन्य किस्मों से ज्यादा उपज मिलने की उम्मीद है।

आलू की खेती के लिए ऐसे करें खेत का चयन

ऐसी जमीन जहां पानी का जमाव न होता हो, वहां
आलू की खेती आसानी से की जा सकती है। इसके लिए दोमट मिट्टी सबसे ज्यादा उपयुक्त मानी जाती है। साथ ही ऐसी मिट्टी जिसका पीएच मान 5.5 से 5.7 के बीच हो, उसमें भी आलू की खेती बेहद आसानी से की जा सकती है।

खेती की तैयारी

आलू लगाने के लिए सबसे पहले खेत की तीन से चार बार अच्छे से जुताई कर दें, उसके बाद खेत में पाटा अवश्य चलाएं ताकि खेत की मिट्टी भुरभुरी बनी रहे। इससे आलू के कंदों का विकास तेजी से होता है।

आलू कि बुवाई का समय

आलू मुख्यतः साल में दो बार उगाया जाता है। पहली बार इसकी बुवाई जुलाई माह में की जाती है, इसके बाद आलू को अक्टूबर माह में भी बोया जा सकता है। बुवाई करते समय किसान भाइयों को ध्यान रखना चाहिए कि बीज की गोलाई 2.5 से 4 सेंटीमीटर तक होना चाहिए। साथ ही वजन 25 से 40 ग्राम होना चाहिए। बुवाई करने के पहले किसान भाई बीजों को अंकुरित करने के लिए अंधरे में फैला दें। इससे बीजों में अंकुरण जल्द होने लगता है। इसके बाद स्वस्थ्य और अच्छे कंद ही बुवाई के लिए चुनना चाहिए। ये भी पढ़े: हवा में आलू उगाने की ऐरोपोनिक्स विधि की सफलता के लिए सरकार ने कमर कसी, जल्द ही शुरू होगी कई योजनाएं आलू की बुवाई कतार में करनी चाहिए। इस दौरान कतार से कतार की दूरी 60 सेंटीमीटर होनी चाहिए जबकि पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर होनी चाहिए।

आलू की फसल में सिंचाई

आलू की खेती में सिंचाई की जरूरत ज्यादा नहीं होती। ऐसे में पहली सिंचाई फसल लगने के 15 से 20 दिनों के बाद करनी चाहिए। इसके बाद 20 दिनों के अंतराल में थोड़ी-थोड़ी सिंचाई करते रहें। सिंचाई करते वक्त ध्यान रखें कि फसल पानी में डूबे नहीं।

आलू की खुदाई

आलू की फसल 90 से लेकर 110 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है। फसल की खुदाई के 15 दिन पहले सिंचाई पूरी तरह से बंद कर देनी चाहिए। खुदाई से 10 दिन पहले ही आलू की पतियों को काट दें। ऐसा करने से आलू की त्वचा मजबूत हो जाती है। खुदाई करने के बाद आलू को कम से कम 3 दिन तक किसी छायादार जगह पर खुले में रखें। इससे आलू में लगी मिट्टी स्वतः हट जाएगी।
९०० गावों को गोद ले भारत के कृषि विज्ञान केंद्र करेंगे पूसा डीकम्पोज़र व वर्मीकम्पोस्ट को प्रोत्साहित

९०० गावों को गोद ले भारत के कृषि विज्ञान केंद्र करेंगे पूसा डीकम्पोज़र व वर्मीकम्पोस्ट को प्रोत्साहित

देश में कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके; Krishi Vigyan Kendra - KVK) द्वारा माइक्रोबियल (सूक्ष्मजीव) आधारित कृषि अपशिष्ट प्रबंधन एवं वर्मीकम्पोस्टिंग (कृमि उर्वरक; केंचुआ खाद या वर्मीकम्पोस्ट (Vermicompost)) को प्रदर्शित एवं इसको प्रोत्साहन देने हेतु ९०० गांवों को गोद लिया है। गत एक महीने में स्वछता अभियान के चलते २२ हजार से ज्यादा किसानों के समक्ष कृषि अवशेषों (पराली आदि) के सूक्ष्मजीव आधारित डीकंपोजर एवं कृषि अवशेषों व अन्य जैविक कचरे को कृमि उर्वरक में परिवर्तन से संबंधित तकनीकों को प्रदर्शित किया गया। किसानों के साथ - साथ ३००० स्कूली बच्चों में वर्मी कम्पोस्टिंग (vermicomposting) के सम्बंध में जागरूकता पैदा की गई।

वर्मी कम्पोस्ट क्या होता है ?

मृदा के स्वास्थ्य एवं फसल की पैदावार में सुधार के लिए बेहतर रूप से अपघटन के उपरांत प्रयोग किए जाने पर फसल अवशेष कीमती जैविक पदार्थ हैं। ज्यादातर फसल अवशेषों की प्राकृतिक उर्वरक बनने की प्रक्रिया की दीर्घ अवधि की वजह से किसान इसे जलाकर नष्ट करने का कार्य करते हैं। इसके परिणामस्वरूप एक कीमती संपत्ति की बर्बादी के अतिरिक्त इससे पर्यावरण भी दूषित होता है।

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कंपोस्टिंग तकनीकें “पूसा डीकंपोजर(PUSA Decomposer) जैसे कुशल सूक्ष्मजीवी अपघटक का प्रयोग करके अपघटन प्रक्रिया को तीव्र करती हैं। जिससे कम समय में अच्छी गुणवत्ता वाली जैविक उर्वरक हासिल होती है। अवशेषों की राख के स्थान पर इससे बने जैविक उर्वरक मिट्टी में कार्बनिक कार्बन एवं अन्य जरूरी पोषक तत्वों को पौधों के लिए प्रदान करवाता है। साथ ही, मिट्टी में सूक्ष्मजीव आधारित गतिविधि को बढ़ावा देता है। फसल के अवशेष एवं अन्य कृषि अपशिष्ट जैसे कि गाय के गोबर एवं रसोई के कचरे आदि के आंशिक रूप से सड़ने के उपरांत इसमें केंचुओं की बेहतर प्रजातियों का उपयोग करके इन्हें कृमि उर्वरक में परिवर्तित किया जा सकता है। कृमि उर्वरक पौधों को आवश्यक पोषक तत्वों की भरपाई करता है, मृदा के गुणकारी सूक्ष्मजीवों को बढ़ावा देता है, एवं मिट्टी के स्वास्थ्य में बेहतरी करता है। साथ ही, इसके अतिरिक्त वर्मी कम्पोस्ट को बाजार में बेचकर भी मुनाफा किया जा सकता है।
मकर संक्रांति तक अच्छा खासा मुनाफा दिलाएगा यह व्यवसाय

मकर संक्रांति तक अच्छा खासा मुनाफा दिलाएगा यह व्यवसाय

जनवरी का माह चल रहा है, मकर संक्रांति का त्यौहार आने को है। इस दौरान तिल से निर्मित मिठाईयां एवं खाद्य उत्पादों की माँग काफी तेजी से बढ़ जाती है।  इसलिए तिल की प्रोसेसिंग का व्यापार करना अत्यंत मुनाफा दिला सकता है। यह नव वर्ष किसानों हेतु अच्छा होने वाला है। नवीन कृषि तकनीकों एवं योजनाओं  सहित कृषकों को व्यापार करने हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिससे कि उनकी आय को बढ़ाया जा सके। हालाँकि गांव में रहने वाले बहुत सारे किसान खेती सहित पशुपालन भी किया करते हैं, परंतु आज हम आपको जानकारी देने वाले हैं, कि मकर संक्रांति के त्यौहार पर चलने वाले व्यापार के संबंध में बताएंगे, इसके माध्यम से आप आगामी 15 दिन के भीतर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। दरअसल, मकर संक्रांति के त्यौहार के दौरान बाजार में तिल, गुड़ एवं मावा की माँग में वृद्धि हो जाती है, इस वजह से जो भी किसान खेती सहित पशुपालन भी करते हैं। वो अभी से तिल एवं दूध के फूड प्रोसेसिंग व्यवसाय पर कार्य  करके अच्छी खासी आय कर सकते हैं।

तिल की क्या विशेषताएँ हैं

सर्दियों में लोगों को गर्म खाद्य उत्पाद का उपभोग करने की सलाह दी जाती है। विज्ञान व आयुर्वेद में भी तिल की भाँति गर्म खाद्य पदार्थों को सर्दी हेतु काफी बेहतर बताया जा रहा है। यदि आप चाहें तो तिल के तेल से खाना निर्मित करें या फिर इसकी मिठाई खाएं। बतादें, कि तिल हमारे स्वास्थ्य को हर प्रकार से लाभ प्रदान करता है। अगर हम तिल के शुद्ध तेल 400 से 500 रुपये लीटर तक विक्रय होता है।


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तिल की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

तिल से निर्मित होने वाली मिठाइयाँ

राजस्थान राज्य में तिल का उत्पादन बड़े स्तर पर किया जाता है। प्रदेश के किसानों को आत्मनिर्भर बनाने हेतु तिल के प्रोसेसिंग व्यवसाय की तरफ प्रेरित किया जा रहा है, इससे यह फायदा यह है, कि किसान तिल के तेल एवं इससे दूसरे उत्पाद निर्मित कर अच्छी खासी आमदनी कर सकते हैं। केंद्र व राज्य सरकार भी कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से प्रशिक्षण भी मुहैय्या कराती है। किसानों से लेकर घरेलू महिलाएं अथवा कोई भी आम नागरिक कृषि विज्ञान केंद्र से फूड प्रोसेसिंग का प्रशिक्षण लेकर स्वयं व्यवसाय शुरू किया जा सकता है। आजकल तिल से निर्मित तिलकुट, मिठाई, चीनी, मावा, एवं गुड़ की काफी मांग है। बाजार में 200 से 600 रुपये किलो के मूल्य से यह मिठाई विक्रय की जा रही है। बाजार में स्थाई एवं अस्थाई दुकानों, ठेलों में तिल की मिठाई की बेहद माँग रहती है। इस वजह से किसी प्रकार की विपणन संबंधित चुनौती भी नहीं रहती है। काफी कम दिनों के अंतराल में ही यह मिठाई बन जाती हैं, यदि आप चाहें तो स्वयं गांव के लोगों अथवा घरेलू महिलाओं को भी इस व्यवसाय से जोड़ सकते हैं। इन समस्त बातों के अलावा, बाजार में तिल के तेल की माँग सदैव बनी रहती है। अगर आपकी फसल खरीफ सीजन में बेहतर हो पायी है, तो 200 रुपये किलो विक्रय वाले तिल द्वारा 500 रुपये लीटर का तेल निकाल अच्छी आय कर सकते हैं।
कृषि विज्ञान केंद्र पठानकोट द्वारा विकसित सेब की किस्म से पंजाब में होगी सेब की खेती

कृषि विज्ञान केंद्र पठानकोट द्वारा विकसित सेब की किस्म से पंजाब में होगी सेब की खेती

खेती-किसानी के क्षेत्र में कृषि वैज्ञानिकों एवं कृषि विशेषज्ञों का काबिल ए तारीफ योगदान रहता है। अगर वैज्ञानिक शोध करना बंद करदें तो किसानों को कृषि से उत्पन्न होने वाले नवीन आय के संभावित स्त्रोतों की जानकारी नहीं मिलेगी। जिससे खेती किसानी एक सीमा में ही सिमटकर रह जाएगी। किसानों को काफी फायदा होगा। कृषि विशेषज्ञों ने अब पंजाब की मृदा एवं जलवायु के अनुकूल सेब की किस्म विकसित की है। जी, हाँ अब पंजाब के किसान भाई भी सेब का उत्पादन करके अच्छी खासी आमदनी कर पाएंगे। जैसा कि हम जानते हैं, पंजाब एक कृषि प्रधान राज्य के तौर पर जाना जाता है। उत्तर प्रदेश क्षेत्रफल की दृष्टि और उपयुक्त जलवायु होने की वजह के चलते इसको छोड़के दूसरे स्थान पर पंजाब राज्य में सर्वाधिक गेहूं की खेती की जाती है। हालाँकि, अब पंजाब के किसान सेब का भी उत्पादन कर सकेंगे। दरअसल, कृषि विज्ञान केंद्र पठान कोट के जरिए एक ऐसी सेब की किस्म विकसित की गई है। जो कि पंजाब की जलवायु हेतु बिल्कुल उपयुक्त मानी जाती है। ऐसे में अब पंजाब के किसान सेब का उत्पादन करके बेहतरीन आय कर सकेंगे। मुख्य बात ये है, कि सेब की इस किस्म की खेती करने पर कम खर्चा आएगा।

सेब की खेती से बढ़ेगी किसानों की आमदनी

दैनिक भास्कर के अनुसार, कृषि विज्ञान केंद्र पठानकोट का सेब के ऊपर चल रहा परीक्षण सफलतापूर्वक हो चुका है। अब पंजाब के किसान पारंपरिक फसलों के अतिरिक्त सेब की खेती कर सकते हैं। इससे उन्हें अधिक आमदनी होगी। कृषि विज्ञान केंद्र पठानकोट के अधिकारी सुरिंदर कुमार ने बताया है, कि राज्य सरकार किसानों को फसल चक्र से बाहर निकालना चाहती है। जिससे कि वह बाकी फसलों की खेती कर सकें। ऐसे में सेब की खेती पंजाब में खेती किसानी करने वाले कृषकों के लिए किसी वरदान से कम नहीं होगी।

अब गर्म जलवायु वाला पंजाब भी सेब का उत्पादन करेगा

अगर हम आम आदमी के नजरिये को ध्यान में रखकर बात करें तो अधिकाँश लोगों का यह मानना है, कि सेब का उत्पादन केवल ठंडे राज्यों में किया जा सकता है। विशेष रूप से उन जगहों पर जहां बर्फबारी हो रही है। हालाँकि, अब वैज्ञानिकों के प्रयासों से पंजाब जैसे अधिक तापमान वाले राज्य में भी सेब की खेती की जा सकती है। इतना ही नहीं अब कृषि विज्ञान केंद्र पठानकोट कृषकों को सेब के उत्पादन हेतु प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से जागरूक करने का कार्य करेगा। ये भी पढ़े: सेब की खेती संवार सकती है बिहारी किसानों की जिंदगी, बिहार सरकार का अनोखा प्रयास

गेंहू की भी तीन नवीन किस्म विकसित की थी

बतादें, कि खेती करने के दौरान लागत को कम करने के लिए और उत्पादन को अधिक करने के लिए देश के समस्त विश्वविद्यालय वक्त-वक्त पर नवीन किस्मों को विकसित करते रहते हैं। बतादें, कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा बीते माह गेंहू की तीन नवीन किस्मों को विकसित किया गया था। जिसके ऊपर अधिक तापमान का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। सेब की इस किस्म की मुख्य विशेषता यह है, कि गर्मी का आरंभ होने से पूर्व ही यह पककर कटाई हेतु तैयार हो जाएगी।

यह किस्म HD-2967 एवं HD-3086 किस्म की तुलना में ज्यादा पैदावार देता है

खबरों के अनुसार, ICAR के वैज्ञानिकोंं ने बताया था, कि उन्होंने गेहूं की जिस किस्म को विकसित किया था। उनका प्रमुख उदेश्य बीट-द-हीट समाधान के अंतर्गत बुवाई के वक्त को आगे करना है। यदि इन नवीन विकसित किस्मों की बुवाई 20 अक्टूबर के मध्य की जाती है। तो यह होली से पूर्व पक कर कटाई हेतु तैयार हो जाएगी। मतलब कि गर्मी आने से पहले पहले इसको काटा जा सकता है। बतादें कि पहली किस्म का नाम HDCSW-18 है। यह HD-2967 व HD-3086 किस्म के तुलनात्मक अधिक गेहूं की पैदावार देगी।